यूनिफार्म सिविल कोड से तात्पर्य one country one rule होता है अर्थात एक राष्ट्र की सीमा के अंतर्गत रहने वाले प्रत्येक ब्यक्ति के लिए प्रत्येक मामले के लिए एक कानून होने से है , चाहे वह ब्यक्ति किसी भी धर्म या जाति का हो । समान नागरिक संहिता में सभी धर्मो के लिए विवाह , उत्तराधिकार , विभाजन , भरणपोषण , दत्तक आदि मामलो के लिए एक ही कानून का विधान होता है । वर्तमान में भारत में सभी धर्मो के लिए उक्त मामलो में अलग अलग कानून लागू होते है ।
क्या समान सिविल संहिता सेक्युलर होती है-
प्रायः यह कहा जाता है की सामान सिविल संहिता पंथनिर्पेच्छ होती है , किन्तु यह पूरी तरह से सत्य नहीं है । सत्य यह है की सामान सिविल संहिता पंथनिर्पेच्छ हो भी सकती है और नहीं भी अर्थात वह धार्मिक भी हो सकती है । उदाहरण के लिए पाकिस्तान और बांग्लादेश में समान सिविल संहिता लागू है अर्थात वहाँ के प्रत्येक नागरिक के लिए एक ही कानून है किन्तु वह कानून शरीयत है । इस प्रकार पाकिस्तान और बांग्लादेश का प्रत्येक नागरिक मुस्लिम कानून के अनुसार ही चलता है ।
भारतीय संविधान सभा में बहस –
भारत में समान सिविल संहिता की संकल्पना ब्रिटिश हुकूमत के विरूद्ध जारी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही स्वतंत्रता सेनानियों के मन में आकर लेने लगी थी । संविधान निर्माण के समय ही भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ । धर्म के आधार पर भारत का विभाजन का मुख्य कारण मुस्लिम समुदाय में बढ़ती धार्मिक कटरता थी । यही कारण है की संविधान सभा में समान सिविल संहिता की पुरजोर मांग कुछ सदस्यों द्वारा की गयी । किन्तु कुछ सदस्यों का कहना था की अभी मुस्लिम समाज इसके लिए तैयार नहीं है ,अतः इसे भभिस्य के लिए छोड़ देना चाहिए । अंततः भारतीय संविधान के चैप्टर 4 में आर्टिकल 44 को शामिल किया गया जिसमे यह उपबंध किया गया की राज्य सभी नागरिको के लिए सामान सिविल संहिता का निर्माण करेगा ।
हिन्दू कोड बिल–
समान सिविल संहिता पारित न होने के बाद डॉक्टर आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल की आवस्यकता पर बल दिया । उनका कहना था की हिन्दू धर्म के विकाश के लिए आवश्यक है की हिन्दू धर्म में ब्याप्त बुराईयो को समाप्त करने के लिए हिन्दू कोड बिल पारित किया जाय । किन्तु दूसरी तरफ कुछ हिंदू धार्मिक संगठनों एवं संतो का कहना था की समान सिविल संहिता पारित किया जाय । उनका कहना था की यदि हिन्दू बहनो को अधिकार मिलेगा तो मुस्लिम बहनो को भी समान अधिकार मिलना चाहिए । बिरोध करने वालो में प्रभुदत्त ब्रह्मचारी प्रमुख रूप से शामिल थे । डॉक्टर आंबेडकर चाहते थे की नेहरू सर्कार हिन्दू कोड बिल पारित करे किन्तु सर्कार उनकी बात पर ध्यान नहीं दे रही थी जिसके कारण वे निराश होकर नेहरू मंत्रिमंडल से स्तीफा दे दिए ।
प्रथम लोक सभा चुनाव में हिन्दू कोड बिल प्रमुख मुद्दा था । प्रभुदत्त ब्रह्मचारी नेहरू जी के खिलाफ फूलपुर प्रयागराज से चुनाव लड़े किन्तु वे चुनाव बूरी तरह हार गए ।
प्रथम लोक सभा चुनाव में कांग्रेस ने भारी बहुमत से चुनाव में जीत हासिल की । चुनाव जीतने के बाद हिन्दू विधि में सुधार हेतु हिन्दू विवाह अधिनियम , हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम , हिन्दू दत्तक ग्रहण एवं भरण- पोषण अधिनियम , हिन्दू माइनॉरिटी एंड गरदिअनशिप [ guardianship]एक्ट को पारित किया । संसद द्वारा पारित उक्त विधायन के परिणामस्वरूप हिन्दू विधि में ब्यापक सुधार हो गया ।
संविधान के बाद स्थिति –
भारत की बहुसंख्यक आबादी की सदैव से यह मांग रही है की समान नागरिक संहिता लागू हो किन्तु अल्पसंख्यक समाज खासतौर पर मुस्लिम समाज इसका लगातार पुरजोर विरोध करता रहा है । यद्यपि की यह भी सत्य है की न केवल भारत में ही अपितु पूरे बिश्व में जब भी महिला अधिकारों की मांग उठी है तब- तब कुछ धर्म के ठेकेदारों का धर्म संकट में आ जाता है. हाल ही में ईरान में हिजाब का बिरोध करती महिलाओ के ऊपर वहा की सर्कार द्वारा किया जा रहा उत्पीड़न इसका ताजा उदाहरण है ।
हिनुस्तान में समान सिविल संहिता लागू करना एक कठिन कार्य है । अल्पसंख्यक वर्ग का यह कहना रहा है की भारतीय संविधान उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रदान करता है । अनुच्छेद 25 प्रत्येक भारतीय को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है । जबकि समान सिविल संहिता के समर्थको का कहना है की अनुच्छेद 14 के अंतर्गत विधि के समछ समता एवं विधियों के समान प्रोटेक्शन की बात कहि गयी है अतः प्रत्येक ब्यक्ति के लिए एक कानून होना चाहिए ।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44 राज्य के ऊपर यह दायित्व अधिरोपित करता है की वह समान सिविल संहिता का निर्माण करेगा । सवाल यह है की ऐसी कौन सी मजबूरि रही है की राज्य अपने इस दायित्व को पूरा करने में असफल रही है , सवाल यह भी है की क्या इसके पीछे राजनैतिक उदासीनता रही है या अल्पसंख्यक समुदाय की चिंता । सवाल यह है की जब संबिधान का अनुच्छेद 44 राज्य को यह निर्देशित करता है की राज्य समान सिविल संहिता का निर्माण करेगा तो अभी तक इस दिसा में सार्थक प्रयास क्यों नहीं किया गया । सवाल यह भी है की जब हम अनेकता में एकता का दम्भ भरते आ रहे तो कानून में एकरूपता से परहेज क्यों । क्या एक संविधान वाले देश में ब्यक्तिगत मामलो में भी एक कानून नहीं होना चाहिए ।
दरसल गोवा एक मात्र ऐसा राज्य राज्य है जहा समान सिविल संहिता लागू है अतः यह कहना की समान सिविल संहिता लागू होने के बाद अल्पसंख्यक लोग स्वीकार नहीं करेंगे सही प्रतीत नहीं होता । सत्य यह है की यदि ऐसे ही प्रयास अन्य राज्यों द्वारा किये जाये तो सायद संवैधानिक उद्देश्यों को पूरा किया जा सकता है । किन्तु वोट बैंक की राजनीती समान सिविल संहिता लागू न होने के पीछे मुख्य वजह रही है । एक दल जहा इसका पूरजोर समर्थक रहा है वही अन्य दूसरे दल इसे अल्पसंख्यको के विरुद्ध बताते रहे है । जहा एक दल को वोट बैंक में सेंध लगाने की फिक्र है तो दूसरी तरफ कुछ दलों को अपना वोट बैंक खिसकने की चिंता सताती रही है । वास्तव में राजनैतिक दलों का यह डर बहुत पुराना है क्योकि जब हिन्दू कोड बिल की बात उठी तो हिन्दू जनमानस के द्वारा ब्यापक विरोध हुआ था । विरोध के कारण ही तात्कालिक कानून मंत्री को स्तीफा देना पड़ा था । सायद यही कारण रहा है की राजनैतिक दल इस प्रकार के किसी भी विवाद से बचते रहे है ।
लेकिन सवाल फिर वही है की जब हमारा संविधान विधि के शासन की बात करता है तो मात्र धर्म के आधार पर महिलाओ के साथ भेदभाव कहा तक न्यायसंगत है । क्या हम अपने संवैधानि मूल्यों को भूल गए है । आज भी ब्यक्तिगत विधि के नाम पर महिलाओ का शोषण जारी है खासतौर पर मुस्लिम महिलाये आज भी शरिया के अनुसार चलने को विवश है , आज भी विवाह , तलाक, उत्तराधिकार आदि मामलो में में मुस्लिम समुदाय शरीयत के अनुसार ही चलता है । दरसल सवाल उन मुस्लिम महिलाओ की आजादी का है जो तलाक से पीड़ित है , जो हलाला जैसी कुप्रथा की शिकार है , ऐसी महिलाये जो भरणपोषण के अधिकार से वंचित है , आज भी कुछ जगहों पर पर महिलाओ के खतना जैसी कुप्रथा भी ब्याप्त है ।
न्यायिक दृश्टिकोण –
माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सर्वप्रथम मोहमद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम के मामले में धारित किया की समान सिविल संहिता से राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित होगी एवं विभिन सिधान्तो एवं विचारो में ब्याप्त टकराव कम होगा ।
सरला मुद्गल [ sarla mudgal ] के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक बार पुनः समान सिविल संहिता की आवस्य्क्ता पर बल दिया ।
डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ AIR 2001SC 3958 के मामले में न्यायालय ने कहा की समान सिविल संहिता के निर्माण के बिना मुस्लिम महिलाओ के अधिकारों को सुरछित करना संभव नहीं है ।
निष्कर्ष –
वास्तव में न केवल संवैधानिक उदेश्यो को पूरा करने के लिए समान सिविल संहिता आवश्यक है बल्कि महिलाओ के मानवाधिकारों को भी संरछित करने के लिए इसकी महती आवस्यकता है । आज हिंदुस्तान को ऐसे नागरिक बनाने की आवस्य्क्ता है जो वैश्विक अस्तर पर प्रतिस्पर्धा दे सके और यह तब तक संभव नहीं है जब तक सब को समान अवसर न उपलब्ध हो जाये । यद्यपि वर्तमान मोदी सर्कार इस दिशा में सकारात्मक रुख दिखा रही है और ऐसी उम्मीद की जा रही की मोदी सर्कार 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इस पुनीत संवैधानिक दायित्व को जरूर पूरा करेगी ।