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परिचय :
धारा 52 में समाहित. विधि विचाराधीन सिद्धान्त पर आधारित है। lis का तात्पर्य litigation and pendens का अभिप्राय pending होता है इस प्रकार : lis का अर्थ सामान्यतः विचाराधीन वाद होता है । वास्तव में जब कोई वाद न्यायालय में संस्थित कर दिया जाता है तब उस वाद की बिषयवस्तु को न्यायालय के निर्णय के अधीन सेक्शन 52 के अंतर्गत रख्खा गया है ।
इस सिद्धांत का अभिप्राय हैं वाद के लम्बित रहने के दौरान किसी नये हित का सृजन नहीं किया जाना चाहिए। किसी नये हित के सृजन से अभिप्राय है ‘संपत्ति का अन्तरण । सार यह है कि यह सिद्धान्त वाद के लम्बित रहने के दौरान संपत्ति के अन्तरण की मनाही करता है जिससे की वाद की बहुलता को रोका जाय . वाद की बहुलता का रोका जाना न केवल न्याय हित में होगा बल्कि समाज के हित में भी होगा . .
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धारा 52:
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सेक्शन 52 इस प्रकार है –
जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर भारत की सीमाओं के अन्दर प्राधिकारवान् या केन्द्रीय सरकार द्वारा ऐसी सीमाओं के परे स्थापित किसी न्यायालय में ऐसे वाद या कार्यवाही के लम्बित रहते हुए जो दुस्संधिपूर्ण न हो और जिसमें स्थावर सम्पत्ति का कोई अधिकार प्रत्यक्षतः और विनिर्दिष्टतः प्रश्नगत हो, वह सम्पत्ति उस वाद या कार्यवाही के किसी भी पक्षकार द्वारा उस न्यायालय के प्राधिकार के अधीन और ऐसे निबन्धनों के साथ, जैसे वह अधिरोपित करे अन्तरित या व्ययनित की जाने के सिवाय ऐसे अन्तरित या अन्यथा व्ययनित नहीं की जा सकती कि उसके किसी अन्य पक्षकार के किसी डिक्री या आदेश के अधीन, जो उसमें दिया जाए, अधिकारों पर प्रभाव पड़े.
स्पष्टीकरण – किसी वाद या कार्यवाही का लम्बन इस धारा के प्रयोजनों के लिए उस तारीख से प्रारम्भ हुआ समझा जायगा जिस तारीख को सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय में वह वादपत्र प्रस्तुत किया गया या वह कार्यवाही संस्थित की गयी और तब तक चलता हुआ समझा जायगा जब तक उस वाद या कार्यवाही का निपटारा अंतिम डिक्री या आदेश द्वारा न हो गया हो और ऐसी डिक्री या आदेश को पूरी तुष्टि या उन्मोचन अभिप्राप्त न कर लिया गया हो या तत्समय प्रवृत्त-विधि द्वारा उसके निष्पादन के लिए विहित किसी अवधि के अवसान के कारण वह अनभिप्राप्य न हो गया हो ।
विशन सिंह बनाम खजान सिंह, ए० आई० आर० 1958 एस० सी० 838.- के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धारित किया की लम्बित वाद का सिद्धान्त केवल वादकालीन हस्तान्तरण पर लागू होता है यह पूर्व निर्धारित अधिकारों को प्रभावित नहीं करता है। इस सिद्धांत के अनुसार किसी सक्षम न्यायालय में अचल संपत्ति से संबंधित वाद लम्बित रहने के दौरान संपत्ति का अन्तरण नहीं किया जाना चाहिए। यह अन्तरण मात्र न्यायालय की स्वीकृति से ही किया जा सकता है।
इस धारा के स्पष्टीकरण द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि वाद पत्र प्रस्तुत करने से लेकर डिक्री के निष्पादन तक की क्रिया को वाद लम्बित रहना माना जायेगा ।
. सिद्धान्त
Samrender Nath Sinha vs. Kishan Kumar Nag AIR 1967 SC –
•इस मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने धारित किया की लंबित रहने के दौरान किसी नये हित का सृजन नहीं किया जाना चाहिए । यदि ऐसा किया जाता है तो अन्तरिती न्यायालय के निर्णय से बाध्य होगा । यदि अन्तरिती को वाद के लंबित रहने की जानकारी न हो तो भी वह न्यायालय के निर्णय से बाध्य होगा ।
. सिद्धान्त का प्रभाव
Parbhakar vs. Antonio AIR 1971 Goa
इस मामले में न्यायालय द्वारा धारित किया गया /निर्णय दिया गया कि वाद के लम्बित रहने के दौरान
किया गया अन्तरण स्वतः ही शून्य नहीं होता है, यह मात्र वाद के पक्षकारों के हितों को तभी प्रभावित करता है
जब अन्तरणकर्ता के विरुद्ध न्यायालय द्वारा निर्णय दे दिया जाय दूसरे शब्दों में यदि निर्णय अंतरणकर्ता के पच्छ में आ जाता है तो अंतरण वैध होता है ।
यह अन्तरण मात्र प्रभावी पक्षकार के विकल्प पर शून्यकरणीय होता है । यदि अन्तरणकर्ता वाद जीत जाता है तो अन्तरिती को पूर्ण स्वामित्व प्राप्त हो जाता है और यदि अन्तरणकर्ता वाद हार जाता है तो विपक्षी पक्षकार के विकल्प पर यह अन्तरण शून्यकरणीय होता है। इस प्रकार अन्तरिती वाद के निर्णय से बाध्य होता है .
आवश्यक तत्व :
(1) वाद या कोई कार्यवाही लम्बित होनी चाहिए।
( 2 ) वाद या कार्यवाही किसी सक्षम न्यायालय में लम्बित होनी चाहिए।
( 3 ) दुस्संधिपूर्ण नहीं होनी चाहिए ।
( 4 ) लम्बित वाद में अचल संपत्ति के सम्बद्ध में हक विवादास्पद होना चाहिए ।
(5) वाद के किसी पक्षकार द्वारा संपत्ति का अन्तरण किया जाना ।
: ( 6 ) इस अन्तरण. से.वाद के दूसरे पक्षकार का हित प्रभावित होना चाहिए ।
अनैच्छिक अन्तरण :
वास्तव में यह आवश्यक नहीं होता है
कि अन्तरण पक्षकारों के कार्य द्वारा किया गया हो। यदि वाद के लम्बित रहने के दौरान
न्यायालय द्वारा डिक्री के निष्पादन से संपत्ति का अन्तरण किया हो तो भी अन्तरिती इस सिद्धान्त से प्रभावित
होगा ।
: अपवाद :
वाद के लम्बित रहने के दौरान न्यायालय उचित शर्तों के अधीन संपत्ति के अन्तरण का आदेश दे सकता । इस स्थिति में यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा।
निष्कर्ष :
वास्तव में वाद लंबित रहने का सिद्धांत आम जनता के इंटरेस्ट को ध्यान में रखते हुए वाद की बहुलता को रोकने के लिए बनाया गया है । इस सिद्धांत के द्वारा लंबित वाद के दौरान किया गया कोई भी अंतरण न्यायलय के निर्णय के अधीन होता है । हो तब भी
यदि वाद दायर करने के पश्चात् परन्तु समन तामील होने के पूर्व संपत्ति का अन्तरण कर दिया गया हो तब भी अन्तरिती इस सिद्धान्त से प्रभावित होंगा. यदि वाद त्रुटि के कारण खारिज कर दिया हो तथा इसके दौरान संपत्ति का अन्तरण कर दिए जाये परन्तु अपील में वाद को पुन:स्थापित कर दिया जाये तो इस दौरान किया गया अन्द्वरण भी इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा क्योंकि वाद को पुनः स्थापित करने से पूर्ववर्ती वाद पुनः जीवित हो जाता है ।
सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के आदेश 21 नियम 102 के अनुसार वाद लंबित रहने के दौरान किये गए अंतरण का अन्तरिती कब्जे का हक़दार नहीं होता है ।