भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव अनेकानेक गुमनाम भारत माता के संतानों के बलिदानों से बनी है, बात जब-जब भारत माता के स्वतंत्रता और स्वाभिमान की आयी है, तो भारत माँता के सपूत कभी भी अपने कदम पीछे नही हटाये है, यद्यपि यह भी सत्य है कि आजादी के इतने वर्षो के बाद भी आजादी के अनेक ऐसे महानायकों को इतिहास की पुस्तकों में, हम यथोचित स्थान देने में असफल रहे है जिसके कि वे हकदार रहे है।
आजादी के ऐसे गुमनाम महानायको में से एक स्वतंत्रता प्रेमी विन्ध्य की धरती पर जन्म लेने वाले ठाकुर रणमत सिंह भी रहे है। ब्रितानी सत्ता के विरूद्ध 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला कर रख देने वाले भारत माता के वीर सपूत ठाकुर रणमत सिंह का जन्म 1825 ई. में सतना जिले के मनकहरी नामक ग्राम में एक हिन्दू परिवार में हुआ था ।
लोक कहावतों में यह प्रचलित है कि ठाकुर रणमत सिंह बचपन से ही स्वाभिमानी प्रकृति के थे। अपनी मातृभूमि के प्रति उनके मन में एक अनोखा प्यार था, जो कि उनकी उम्र के बढ़ने के साथ-साथ और प्रगाढ़ होता गया ।
ठाकुर रणमत सिंह को अपनी मातृभूमि के लिए कुछ करने और गुलामी की जंजीरों में जकड़ी भारत माता को, मुक्त कराने का अवसर उस समय प्राप्त हुआ जब 10 मई 1857 की दोपहर बाद मेरठ छावनी में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। यद्यपि विद्रोह की शुरूआत भारतीय सैनिक से बनी पैदल सेना से हुई थी जो जल्द ही घुड़सवार फौज और फिर शहर तथा ग्रामीण क्षेत्रो तक फैल गई। शहर के साथ ही साथ आम ग्रामीण जनता भी विद्रोह से जुड़ती चली गई, इसका मुख्य कारण यह था कि भारतीय जनमानस के मन में गोरो की दमन कारी नीतियों के प्रति भारी आक्रोश था।
ब्रिटिश सरकार समाज सुधार के नाम पर हिन्दुओं की धार्मिक मान्यताओं में लगातार हस्तक्षेप कर रही थी। भारतीय शासको को सत्ता चलाने के अयोग्य घोषित करके एवं हिन्दुओं में प्रचलित दत्तक ग्रहण की धार्मिक मान्यता को अवैध घोषित करके झॉसी, सतारा जैसी रियासतों को अंग्रेज अपने कब्जे में ले रहे थे। अंग्रेजो की इस हड़प नीति के कारण न केवल राजे-महराजे डरे हुये थे अपितु आम जनता भी अंग्रेजो की विस्तारवादी नीति से संशकित थी। जैसे ही कोई रियासत अपने कब्जे में अंग्रेजो द्वारा ली जाती थी, वहाँ पर अपनी साम्राज्यवादी नीतियों को आम जनता पर थोपने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया जाता था। भारतीय जनमानस अपने ही राजा-महराजाओं की जाती हुई सत्ता को देखकर दुखी थी । कृषि नीति कृषको के शोषण का पर्याय बन चुकी थी ।
1857 की क्रांति की लौ को विन्ध्य की धरती पर जलाने का कार्य मुख्यतः ठाकुर रणमत सिंह ने किया। ठाकुर रणमत सिंह ने ग्रामीणों और काश्तकारों को संरक्षित करने के लिए अथक प्रयास किया, इसके लिए उन्होंने रात के साए में गाँवों में जाकर ब्रितानी सत्ता की दमनकारी नीतियों के विरूद्ध जागरूक किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि विन्ध्य की धरती पर भी अंग्रेजो के खिलाफ आंदोलन एक ब्यापक विद्रोह में तब्दील हो गया ।
ऐसा माना जाता है कि ब्रितानी सैनिकों के विरूद्ध पहला युद्ध उन्होंने नागौंद के पास भेलसॉय में लड़ा और जिसमें ठाकुर रणमत सिंह के नेतृत्व वाली सैनिक टुकड़ी ने विजय हासिल की। इसके बाद उन्होने अपने क्रांतिकारी साथियों एवं ग्रामीणों के साथ मिलकर नयागॉव में अंग्रेजो की छावनी पर हमला बोला ।
ठाकुर रणमत सिंह को अंग्रेजो के खिलाफ इस लड़ाई में हर वर्ग का व्यापक समर्थन मिल रहा था। संत समाज भी ठाकुर रणमत सिंह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजो के विरूद्ध खड़ा था । चित्रकूट हनुमान धारा में साधु-संतो के साथ मिलकर उन्होंने अंग्रेजो से मुकाबला किया, इसमें कई साधु-संतो को वीरगति प्राप्त हुई। इस मुकाबले में ठाकुर रणमत सिंह गम्भीर रूप से घायल हुये, लेकिन अंग्रेजो के हॉथ नही आये ।
यह माना जाता है कि ठाकुर रणमत सिंह ने बिहार के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी कुंवर सिंह एवं उनके छोटे भाई अमर सिंह को गोरे सैनिको के विरूद्ध लड़ने के लिए आमंत्रित किया था। उनके इस कदम से आस-पास के गांवो में मुख्यतः पिंड्रा नामक गाँव के ग्रामीणों में उत्साह बढ़ाने का काम किया, परिणामस्वरूप ग्रामीणों ने एक क्रांतिकारी संघ का गठन किया, जिसको प्रशिक्षित करने का कार्य अमर सिंह ने किया । यह माना जाता कि, ठाकुर रणमत सिंह के नेतृत्व में ग्रामीणों ने पयसनी नदी के पास ब्रितानी सैनिको को बुरी तरह पराजित कर दिया था ।
भारत माता के इस वीर सपूत को 1859 ई. में अंग्रेजों ने आगरा में फाँसी दे दी । ठाकुर रणमत सिंह ने स्वतंत्रता प्रेमी विन्ध्य की धरती से, जो लौ 1857 में जलायी थी, वो 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति तक जलती रही और 1947 के स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए शहीद लाल पद्मधर सिंह जैसे अनेक युवाओं ने अपने प्राण की कुर्बानी दी, और भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराया ।