हिन्दू विवाह एक संस्कार है संविदा नहीं (U.P.P.C.S.J.1992 Bihar J.1991)

प्रश्न- 

हिन्दू विवाह एक संस्कार है संविदा नहीं (U.P.P.C.S.J.1992 Bihar J.1991

उत्तर –

विवाह की परिभाषा- 

विवाह चाहे संस्कार हो या संविदा किन्तु इससे पक्षकारों को एक विशेष प्रास्थिति प्राप्त हो जाती है। पक्षकारों को पति तथा पत्नी की प्रास्थिति प्राप्ति हो जाती है। जैसा कि डी.एन. मजूमदार का मानना है कि विवाह संस्था का सम्बन्ध एक विशेष सामाजिक स्वीकृति से है, जो कानूनी या धार्मिक संस्कार के रूप में होती है और जो आर्थिक एवं सामाजिक सम्बन्धों को धार्मिक, सामाजिक एवं कानूनी मान्यता प्रदान करती है। 

हिन्दू विवाह एक संस्कार है संविदा नहीं- 

प्राचीन हिन्दू विधि में विवाह को एक संस्कार माना जाता था। यह एक ऐसा पवित्र बन्धन माना जाता था, जो कभी टूट नहीं सकता था। 

महाभारत के आदि पर्व के श्लोक 40-41 और 74 में विवाह के महत्व के विषय में चर्चा की गयी है जिसके अनुसार, 

“वही व्यक्ति पारिवारिक जीवन व्यतीत कर सकता है जिसके पास पत्नी हो तथा वही पुरूष इस संसार में सुखी रह सकता है जिसके पास पत्नी है । ” 

न्यायिक दृष्टिकोण- 

1. मनमोहिनी बनाम बसन्त कुमार सिंह  

1901 में कलकत्ता उच्च न्यायलय ने हिन्दू विवाह की महत्ता के बारे में बात करते हुए कहा कि

हिन्दू विवाह माँस से माँस तथा हड्डी से हड्डी का मिलन है और यह संस्कार से भी बढ़कर है.

2. दुर्गा पी. त्रिपाठी बनाम अरुन्धती त्रिपाठी 2005 ,7 SCC 353

इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने धारित किया कि हिन्दू विवाह स्वर्ग में तय होते है तथा हिन्दुओं में विवाह का धार्मिक महत्व है, इसीलिए विवाह को हिन्दुओं के 16 संस्कारो में से एक माना गया है।  

 

हिन्दू विवाह संस्कार क्यों है- 

प्राचीन हिन्दू विधि में विवाह एक संस्कार माना गया था जिसके पीछे मुख्य कारण निम्न थे- 

1. विवाह के लिए सगाई की जाती थी जिसे विवाह का अनिवार्य भाग माना जाता था। 

2. कन्यादान पिता द्वारा अपनी पुत्री का किया जाता था। 

3. सप्तपदी विवाह का अन्तिम और अनिवार्य तत्व था, जो कि वर्तमान हिन्दू विधि में भी अनिवार्य है।

 

4. पितृ ऋण को मुक्ति के लिए विवाह आवश्यक माना जाता था क्योंकि विवाह के बिना पुत्र की प्राप्ति संभव नहीं थी। 

 

5. स्वर्ग की प्राप्ति के लिए हिन्दू विधि में पुत्र की प्राप्ति को आवश्यक माना गया है।

 

6. धार्मिक अनुष्ठानों एवं दायित्वों को पत्नी के बिना पूरा नहीं किया जा सकता, इसीलिए विवाह का धार्मिक महत्व बहुत ज्यादा था।

 

7. वंश वृद्धि के लिए विवाह आवश्यक माना गया था, जैसा कि यज्ञवल्क्य स्मृति (1-77) में बताया गया है कि स्त्री मांता बनने के लिए तथा पुरूष पिता बनने के लिए ही इस संसार में जन्म लिया है। 

8. हिन्दू विधि में विवाह को न टूटने वाला बन्धन बताया गया है।  

विवाह का वर्तमान स्वरूप- संस्कार से संविदा की ओर- 

इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन हिन्दू विधि का स्वरूप संस्कार पर आधारित था, किन्तु भारत में अंग्रेजी सत्ता स्थापित होने के बाद अनेक ऐसे कानून बने जिससे की प्राचीन हिन्दू विवाह का स्वरूप प्रभावित हुआ और हिन्दू विवाह अधिनियम पारित होने के बाद यह शुद्ध रूप से संस्कार तो बिल्कुल नहीं रह गया है। 

हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 का हिन्दू विवाह के स्वरूप पर प्रभाव- 

-विवाह विच्छेद का उपबन्ध प्राचीन हिन्दू विधि में विवाह को जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध माना जाता था किन्तु वर्तमान हिन्दू विधि के अन्तर्गत विवाह विच्छेद (धारा 13) न्यायिक पृथक्करण (धारा 10) पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद (धारा 13B) जैसे नवीन उपबन्ध करके प्राचीन हिन्दू विधि में क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया है। 

 

सगोत्रीय विवाह को मान्यता-  

प्राचीन हिन्दू विधि में समान गोत्र के बीच में विवाह मान्य नहीं था किन्तु वर्तमान हिन्दू विधि के अन्तर्गत समान गोत्र के पक्षकारों के मध्य विवाह को वैध बना दिया गया है। 

क्या विवाह का आधुनिक स्वरूप संविदात्मक है- 

वर्तमान हिन्दू विवाह अधिनियम पारित होने के बाद निम्नकारणों से कहा जा सकता है कि विवाह का स्वरूप संविदात्मक हो गया है- 

1. सहमति से विवाह विच्छेद की अनुमति (13B] 

2. 1976 के विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम के बाद न्यायिक पृथक्करण और विवाह विच्छेद के आधारों को एक कर दिया गया। इस संशोधन ने विवाह के सांस्कारिक स्वरूप को बहुत प्रभावित किया। 

3. 1976 के संशोधन के पूर्व यौन सम्बन्धी बीमारी एवं पागलपन के आधार पर विवाह विच्छेद तभी प्राप्त किया जा सकता था, जबकि कोई पक्षकार तीन वर्ष तक लगातार उक्त बीमारी से ग्रस्त रहा हो, किन्तु 1976 के पश्चात ३ वर्ष की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया गया, जिससे पक्षकारों के लिए विवाह को समाप्त करना आसान हो गया ।  

 

4. जारता के आधार पर विवाह विच्छेद की डिक्री लगातार जारता में रहने से मिलती थी किन्तु 1976 के संशोधन के बाद एक बार की जारता भी विवाह विच्छेद के लिए पर्याप्त आधार मान ली गयी है। जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ के मामले में 27 सितम्बर 2018 को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने जारता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक घोषित कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ की अब जारता में रहना अपराध नहीं रह गया। जारता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने से पति या पत्नी के मन से यह डर समाप्त हो गया कि यदि वे अपने पति या पत्नी के अलावा किसी अन्य से सहवास करेंगे तो वे दण्ड के भागी होंगे। अब कोई भी पक्षकार आसानी से वैवाहिक सम्बन्ध को समाप्त कर सकता है।  

 

निष्कर्ष:- प्राचीन हिन्दू विधि में विवाह का स्वरूप पूर्णतया संस्कार पर ही आधारित था, किन्तु हिन्दू विवाह अधिनियम पारित होने के बाद इसको काफी आघात पहुँचा। हमारी न्याय पालिका ने विवाह के संविदात्मक स्वरूप के विकास में ही योगदान दिया है, उदाहरण के लिए जोसेफ साइन बनाम भारत संघ के निर्णय के बाद विवाह का संस्कारात्मक स्वरूप काफी हद तक प्रभावित हुआ है किन्तु फिर भी अभी भी विवाह का स्वरूप पूरी तरह से संविदात्मक नहीं हुआ है, बल्कि हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत अनेक ऐसे उपबन्ध है जिसमे कि विवाह के संस्कारात्मक स्वरूप को संरक्षित किया गया है, उदाहरण के लिए सप्तपदी की अवधारणा अभी भी धारा सात के अन्तर्गत मान्य है, जो कि विवाह के संस्कारात्मक स्वरूप को मान्यता प्रदान करती है। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि हिन्दू विवाह न तो पूरी तरह से संस्कार है और न ही पूरी तरह से संविदा है, बल्कि यह संस्कार और संविदा दोनों का मिश्रण है।

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