सबूत का भार एवं साबित करने का भार/burden of proof and onus of proof

(UP PCS J MAIN 2012,16) 

प्रश्न – “सबूत का भार ” से सम्बन्धित विधि की व्याख्या करिए। क्या सिविल मामलों के सम्बन्ध में “सबूत का भार ” आपराधिक मामलों के सबूत के भार से भिन्न होता है? विवेचना कीजिए । (UP PCS J MAIN 2012,16)

उत्तर – सबूत का भार – जब कोई व्यक्ति न्यायालय में किसी विशिष्ट कानून के अन्तगत प्राप्त अधिकारो को लागू करवाने के लिए जाता है और यह कहता है कि किसी व्यक्ति ने उसके विधिक अधिकारो का उल्लघंन किया है तब ऐसी परिस्थिति में सबूत का भार उसी व्यक्ति पर होता है, जो अपने अधिकार को प्राप्त करना चाहता है । 

सबूत के भार के दो अर्थ होते है- 

किसी मामले को स्थापित करने का भार 

1 –  किसी मामले को स्थापित करने का भार

2 – साक्ष्य लाने का भार 

 

मामले को स्थापित करने का भार – धारा 101 मामले को स्थापित करने से सम्बन्धित है जो कि इस प्रकार है :- 

जो कोई न्यायालय से यह चाहता है कि ऐसे किसी विधिक अधिकार या दायित्व के बारे में निर्णय दे, जो उन तथ्यों के अस्तित्व पर निर्भर है जिन्हें वह प्राख्यात करता है उसे साबित करना होगा कि उन तथ्यो का अस्तित्व है । 

जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य का अस्तित्व साबित करनें के लिए आबद्ध है तब यह जाता है कि उस व्यक्ति पर सबूत का भार है । 

उदाहरण 

“क” न्यायालय से चाहता है कि वह ख को उस अपराध के लिए दण्डित करने का निर्णय दे जिसके बारे में क कहता है कि वह ख ने किया है, क को यह साबित करना होगा कि ख ने वह अपराध किया है। 

अंग्रेजी विधि के अनुसार – किसी मामले में स्थापित करने का भार उस व्यक्ति पर होता है जो सकारात्मक कथन करता है उदाहारण के लिए कौशलेन्द्र कहता है कि क जीवित है तो यहाँ पर कौशलेन्द्र को ही स्थापित करना होगा कि क जीवित है किन्तु यह सिद्धान्त सही नही है क्योंकि यह भी कहा जा सकता है कि क मरा नही है यहाँ पर क मरा नही है एक नकारात्मक वाक्य है किन्तु इसका भी यही अर्थ निकल रहा है कि क जीवित है, अतः अंग्रेजी विधि का सिद्धान्त त्रुटिपूर्ण है इसलिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम में नही अपनाया गया है। अंग्रेजी विधि की कमी को दूर करने के लिए सर जेम्स स्टीफेन ने बहुत ही सरल ढंग से धारा 103 में उपबन्धित किया है कि- 

“किसी विशिष्ट तथ्य के सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो न्यायालय से यह चाहता है कि उसके अस्तित्व मे विश्वास करें। जब तक कि किसी विधि द्वारा यह उपबन्धित न हो कि उस तथ्य के सबूत का भार किसी विशिष्ट व्यक्ति पर होगा । 

उदाहरण 

“ख” न्यायालय से चाहता है कि वह यह विश्वास करें कि प्रश्नगत समय पर वह कही दूसरी जगह था तो उसे यह बात साबित करनी होगी। 

सबूत का भार एवं साबित करने का भार में अन्तर- 

सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है, जो न्यायालय के पास सर्वप्रथम उपचार के लिए जाता है यह कभी भी दूसरे पक्षकार पर नही होता । साबित करने का भार धारा 102 के अर्न्तगत सदैव बदलता रहता है। 

यह सामान्य नियम की जो व्यक्ति साक्ष्य न देने के कारण असफल हो जायेगा, सावित करने का भार उसी पर होता है निम्नलिखित अपवादो के अधीन है। 

क- 

ऐसे किसी भी तथ्यों को सावित किये जाने की अपेक्षा नही की जायेगी जो विशेष रूप से दूसरे पक्षकार के ज्ञान में है । (धारा-106) 

ख- 

इसी प्रकार से उसके अभिकथनों में से उतना सावित किये जाने की आवश्यकता नही होगी जितना कि किसी उपधारणा के अन्तर्गत आता हो (धारा-107-113 ) या जहाँ पर न्यायालय धारा 14 के अंतर्गत किन्ही तथ्यों के अस्तित्व को उपधारित कर सकेगा वहाँ पर भी जिस पक्षकार के पक्ष में उपधारणा की जायेगी उसे साबित करनें की आवश्यक्ता नही होगी। 

आपराधिक एवं सिविल मामलों में सबूत के भार में अन्तर – 

क- 

धारा 105 के अनुसार यह साबित करने का भार कि अभियुक्त का मामला अपवादो के अन्तर्गत आता है अभियुक्त पर होता है । धारा 105 केवल आपराधिक मामलो में लागू होती है इस प्रकार का बचाव सिविल मामलो में प्राप्त नही हो सकता है (प्रताप बनाम उ०प्र० राज्य 1976 2 एस०सी०सी०) 

ख-

दण्डशास्त्र का यह सिद्धान्त है कि अभियोजन द्वारा अभियुक्त पर लगाये गये आरोपो को सन्देह से परे साबित करना होता है जबकि सिविल मामलों में ऐसा नही होता, सिविल मामलो में सवूत का भार सम्भावना के प्रबलता पर रहता है ।  

ग-

अधिनियम की धारा 106,108,109,110, 111 सिविल वाद में सावित करने का भार किस पर होता है, विशेष उपबन्ध करती है जबकि धारा 113क, 113ख, 114क आपराधिक मामलों में सावित करने का भार किस पर होता है के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध करती है ।

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